८ जनवरी, १९५८

 

 'दिव्य जीवन' से एक अनुच्छेद पढ्नेके बाद ।

 

        हमने निश्चय किया है हम एक-एक अनुच्छेद पढ़ेंगे ताकि हम विस्तृत व्याख्यामें गहरे पैठ सकें । पर इस ढंगसे पढ्नेमें एक असुविधा भी है । जैसा कि मैं पहले मी कह चुकी हू, श्रीअरविन्द सभी मतोंको, उनके सब युक्ति-तर्कोको साथ लेते है और सविस्तार खोलकर रख देते है, जिससे कि दे समस्याको हल करनेमे उनकी अक्षमता और खामियोंको दशा सकें और उसका ठीक-ठीक समाधान सुझा सकें; पर (हंसती हुई) जब हम एक तर्क- वितर्कके बीचमें ही रुक जाते हैं और एक ही अनुच्छेद पढ़ते है, दलीलके अन्ततक नही पहुंचते तो संभव है कि हम बड़े न्भतमीनानसे कल्पना कर बैठे या विश्वास कर लें कि यह उनका अपना मत है ।

 

        सचमुच, ऐसे मी सिद्धातशून्य व्यक्ति हैं जिन्होंने यह किया है । जब उन्होंने यह प्रमाणित करना चाहा कि उनके मत ठीक हैं तो उन्होंने अपने मतके समर्थनमें श्रीअरविन्दके अनुच्छेदोंको उद्धत कर दिया, पर यह नहीं बताया कि उनके आगे-पीछे क्या है । उन्होंने कहा. ''देखिये, 'दिव्य जीवन' मे' श्रीअरविन्दने ऐसा लिखा है... ।'' उन्होंने ऐसा लिखा है, पर इसका यह मतलब नहीं कि देखनेका यह तरीका उनका अपना था । अब हमारे सामने भी वही कठिनाई है । मैं दा अध्यायोंसे गुजरी हू, जीवन, क्रम-विकास,

 

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अस्तित्वका अभिप्राय (या अस्तित्वके अभिप्रायके अभाव) के बारेमें आधुनिक मतोंमेंसे एक मतका प्रमाण बारीकीसे पढ रही थी ओर श्रीअरविन्दने उसे बडे निश्चयात्मक ढंगसे... प्रस्तुत किया है मानों यह उनका अपना मत और देखनेका ढग हों । जब हम. बीचमे ही रुक जाते है तो बेकल हो उठते है, लगने लगता है. ''यह वह नहीं है जो उन्होंनें हमें बताया था! यह कैसे हों सकता है कि अब वें ऐसे मतका प्रतिपादन कर रहे है? ''.. यह बडी दिक्कत पैदा करता है । लेकिन यदि मै पूरी-की-पूरी दलील पढ्ने लगू तो जब हम अंतिम कड़ीतक पहुंचेंगे तबतक तुम आरंभ भूल चुके होगे और कुछ न समझ पाओगे! अतः सर्वोत्तम बात यही है कि हम एक-एक अनुच्छेद पढ़ें ओर यह समझनेकी चेष्टा करते हुए कि वे क्या कहना चाहते है धीरे-धीरे आगे बढ़ें । लेकिन यह कल्पना मत पाल बैठना कि ३ इसीको सत्य प्रमाणित करना चाहते हैं । वें केवल मतोंका और उनका समर्थन करनेवाली सभी बातोंका विशद विवरण देते है, यह नहीं कहते कि देरवनेका सर्वश्रेष्ठ तरीका यही है ।

 

         वस्तुत: तुम्हें इस पढ़ाईको एक ऐसा सुअवसर समझना चाहिये जो तुम्हें दार्शनिक मनको विकसित करनेकी, चितनको युक्ति-युक्त कर्मसे सजानेकी योग्यता व तर्कको ठोस आधारपर प्रतिष्ठित करनेकी क्षमता देगा । इसे मांसपेशियोंको विकसित करनेके लिये डम्बल-व्यायामकी तरह समझना चाहिये. ये है मस्तिष्कको विकसित करनेवाले डम्बल-व्यायाम । पर हां, कोई निष्कर्ष निकालनेकी उतावली नहीं करनी चाहिये । यदि हम धीरजसे प्रतीक्षा कर सकें तो परिच्छेदके अंतमें अकाटच तर्कके ठोस आधारपर हमें वे दिरवायेंगे कि वे जिस निष्कर्षपर पहुंचे है, उसपर क्यों पहुंचे है ।

 

       इसमें कुछ ऐसी बात है जिसपर प्रश्न उठता हो.. ।

 

       मां, इस पुस्तकसे संबंधित .नहीं ।

 

 कुछ और? क्या है वह?

 

        मां, कभी-कभी सहसा कुछ विचार आ जाते हैं । कहांसे आते है ३ और किस तरह मस्तिष्कमें काम करते हैं?

 

 कहांसे आते है? - मनके वातावरणसे ।

 

क्यों आते हैं?. हों सकता है कि उनसे तुम्हारी भेंट वैसी हो जैसे आम चौराहेपर किसी राहगीरसे । ज्यादातर ऐसा हीं होता है । तुम

 

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अपने-आपको उस राहपर पाते हो जहां विचार मंडराते है । तुम्हारी मुठभेड़ उस विचारसे होती है और वह तुम्हारे सिरमें घुस आता है । स्वा- भाविक है कि जिन्हें एकाग्र होने, ध्यान करनेका अभ्यास है और जिनके लिये बौद्धिक समस्याएं एक ठोस और मूर्त अस्तित्व रखती हैं, वे अपने मन- की एकाग्रताके कारण सहधर्मी विचारोंको आकर्षित करते है और तब वे ''विचारोंकी एक टोली'' रचाते हैं जिसे वे इस तरह सुव्यवस्थित करते है कि अपने सामने आयी समस्याका हल निकाल सकें या अपने सामने आये हुए प्रश्नोंपर प्रकाश डाल सकें । पर इसके लिये चाहिये मनकी एकाग्रता- का अभ्यास और वह दार्शनिक मन जिसके बारेमें मैं तुम्हें बता रही थी कि उसके लिये विचारोंका एक जीवन्त अस्तित्व है, उनका अपना स्वतंत्र जीवन है और जिन्हें सिलसिलेवार मनकी बिसातपर शतरंजके मोहरोंकी तरह सजाना है : तुम उन्हें, उठाते हो, खिसकाते हो, चाल बदलते हो, फिरसे रखते हों, सुव्यवस्थित करते हो, इन विचारोंकी एक सुसंगत इकाई गढ़ती हो । इनकी अपनी व्यक्तिगत, स्वतंत्र सत्ताएं होती है जिनका आपसमें लगाव होता है । ये अपने आंतरिक धर्मके अनुसार संगठित होते हैं । पर इसके लिये तुममें होना चाहिये चितना, मनन, विश्लेषण, निगमन और मन- को सुव्यवस्थित करनेका अभ्यास । नहीं तो, यदि कोई ''ढीला-ढाला'' रहे और जो कुछ भी सामने आये उसीके अनुसार जीवन बिताये तो वह एक खुला बाजार होगा : उसमें रास्ते है, रास्तेपर चलनेवाले है और तुम अपने- आपको पाते हो एक चौराहेपर, वहां कोई विचार तुम्हारे सिरमेंसे गुजर जाता है, यहांतक कि कमी-कमी तो एकदम असंबद्ध विचार आते है, यहां- तक कि मनमें जो धमा-चौकड़ी मचती है उस सबको यदि लिख लिया जाय तो लगेगा कि अच्छी अण्डबण्ड है!   

 

      एक बार हमने कहा था कि हम एक छोटा-सा खेल कर सकते है, यह उपयोगी होगा - हठात् किसीसे पूछ बैठो : ''तुम क्या सोच रहे हों? '' तुम देखोगे कि बहुत थोड़े होंगे जो साफ-साफ कह सकें कि मैं अमुक बातके बारेमें सोच रहा था । यदि कोई तुम्हें ठीक-ठीक जवाब दे सके तो समझो कि वह विचारशील व्यक्ति है । आम तौरपर सहज उत्तर होता है : ''ओह, मुझे मालूम नहीं ।''

 

       उदाहरणके लिये : तुम्हें तो पता है कि जिन्होंने सुव्यवस्थित और संगठित रूपमें शारीरिक व्यायाम किया है वे जानते हैं कि एक खास क्रियाके लिये कौन-कौन-सी मांसपेशियोंको काममें लाना होता है, उन मांसपेशियोंको गति देनेके लिये कौन-सा तरीका 'बेहतर होता है और कम-से-कम शक्तिको खोते हुए अधिक-से-अधिक फल मिल सकता है । अस्तु, विचारोंपर भी यही

 

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बात लागू होती है । जब तुम विधिवत् प्रशिक्षण पाते हो तो ऐसा समय आता है जब तुम तर्क-मालाका इस तरह निष्पक्ष अनुसरण कर सकते हो जैसे रजत पटपर छायाचित्र प्रक्षेपण -- तुम एक-दूसरेसे शुरू होनेवाले विचार- के तार्किक निगमनका अनुसरण कर सकोगे ओर आदिसे अंतिम निष्कर्षतक, कम-से-कम समयमें उसकी स्वाभाविक, तर्कसंगत व्यवस्थित गतिसे आगे बढ़ सकोगे । एक बार यदि यह करनेकी आदत हो जाय, जैसे कि एक निश्चित फल पानेके लिये मांसपेशियोंको चलाने-घुमानेकी आदत होती है, तो तुम्हारे विचार सुस्पष्ट होंगे । नहीं तो विचारोंकी गतियां, बौद्धिक गतियां धुंधली, अयथार्थ और डांवांडोल होती है । एकाएक कोई चीज उमड़ती है, पता नहीं क्यों, फिर दूसरी चीज धूसती है पहलीका खण्डन करनेके लिये, इसका भी कुछ पता नही होता कि क्यों । और यदि तुम इन्हें ठीक-ठीक सजाने-सवारनेकी चेष्टा करो, ताकि यह जान सको कि इन विचारोंका आपसी सम्बन्ध क्या है तो शुरू-शुरूमें कुछ बार ऐसा करनेका प्रयास करते हुए तुम अच्छा-खासा सिरदर्द मोल ले लोगे । तुम्हें, लगेगा कि तुम किसी अछूते गहन वनमें राह पानेके लिये कोशिश कर रहे हो ।

 

       परिकल्पनात्मक मनको विकासके लिये अनुशासनकी आवश्यकता होती है । यदि तुम उसपर विधिवत् अनुशासन नहीं रखते ते। हमेशा बादलोंमें डोलते रहोगे । अधिकतर लोग जस मी परेशान हुए बिना अपने मनमें अत्यधिक विरोधी विचारोंको पोमते रहते हैं ।

 

       जबतक तुम अपने मनको व्यवस्थित करनेकी चेष्टा नहीं करते तबतक कम-से-कम अपने चिन्तनपर नियंत्रण न कर पानेका खतरा तो मोल लेते ही हो । बहुधा तुम अपने विचारोंका मूल्य तभी जान पाते हों जब बे कर्मतक उतर आयें । और अगर कर्मक्षेत्रतक नहीं तो कम-से-कम भावनातक तो निश्चय ही आ जायं । हठात् तुम महसूस करते हों कि तुममें ऐसी कुछ भावनाएं है जो बहुत वांछनीय नहीं है । तब तुम्हें अनु- भव होता है कि तुमने अपने सोचने-विचारनेपर जरा भी लगाम नहीं लगायी ।

 

       मधुर मां, लोगोंमें बुरे विचार क्या इसलिये उठते हैं कि उन- का अपने मनपर कोई वश नहीं होता?

 

        बुरे विचार?... इसके कई कारण हो सकते है । वास्तवमें, इसके बहुत सारे कारण हैं । बुरे स्वभावके कारण भी ऐसा हो सकता है । यदि

 

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 उनमें कलुषित भावनाएं हों तो ये कलुषित भावनाएं मलिन विचारोंका कारण बन सकती हैं । इसका उलटा भी हों सकता है । शायद वे एक खुले मैदानकी तरह है जहां तरह-तरहके सुझाव बेरोक-टोक बाहरसे घुस आते है और, जैसा कि मैं कह चुकी हू, ये सुझाव उनमें घर कर लेते है और धीरे-धीरे बुरी भावनाओंको जन्म देते है । ये अवचेतन प्रभावके फल भी हो सकते है, .क्योंकि ये नियंत्रणके अभावमें सदा आपसमें टकराते रहते हैं । ये प्रभाव जब ऊपरी सतहपर उमर आते है तो उन्हें नियंत्रित करने और अनचाहे प्रभावोंको रोकनेके बदले सबको अपनी मरजीके मुताबिक घुसने दिया जाता है, दरवाजे खुले रहते हैं ।

 

       तुम अच्छी-बुरी, उदासीन, आलोकित, अंधियारी, सब तरहकी चीजोंमें डूबते-उतराते हो । सामान्यत:, हर एकको चेतनाको छाननेका काम करना. चाहिये । वही स्वीकारों जिसे तुम स्वीकारना चाहते हो, वही सोचो जौ तुम सोचना चाहते हो । जबतक तुम विचारोंको औपचारिक स्वीकृति नहीं दे देते तबतक उन्हें भावनाओं और क्रियाओंमें मत बदलने दो ।

 

        मूलतः भौतिक अस्तित्वका यही सार है । हर कोई कतिपय स्पन्दनोंके समूहको, जो उसके खास कार्य-क्षेत्रका प्रतिनिधित्व करते है, संयमित करनेका साधन है । हर एकको वही ग्रहण करना चाहिये जो गवान्की योजनाके साथ मेल खाता हो, बाकी सब त्याज्य है ।

 

      लेकिन हजारमें एक भी ऐसा नहीं जो यह करता हो । अर्ध-चेतन अवस्थामें या शायद परिस्थिति और परिवेशकी रगड़से तुम थोडा-वहुत कर लेते हो, पर जब स्वेच्छासे करनेकी बात उठती है तो निश्चय ही ऐसे बहुत कम लोग है जो स्वेच्छासे करते हों, और स्वेच्छासे करनेवालोंमें मी ठीक ढंगसे और सच्चे ज्ञानके साथ करनेवाले तो और भी विरल है । अपने विचारोंपर नियंत्रण! अपने विचारोंपर कौन नियंत्रण रखता है? केवल वही जिन्होंने इसके लिये अपनेको साधा है, बचपनसे इसके लिये सतत सच्चा प्रयत्न किया है ।

 

        यहां तो पूरा सप्तक है, है न? यह विचारोंपर नियंत्रणके निपट अभाव- से शुरू होता है । अधिकतर लोंगोंके लिये यह इस तरह रूपायित होता है : विचार उनपर शासन करते है, न कि वे विचारोंपर । मनुष्योंकी अधिक संख्या विचारोंसे परेशान रहती है, पर उनसे छुटकारा नहीं पा सकती । अक्षरशः: वे उन्हें अपने अधिकारमें रखते हैं, उनमें इतनी क्षमता नही होती कि इन विचारोंके प्रति अपनी सक्रिय चेतनाके दरवाजे बंद- कर सकें । विचार ही उनपर अधिकार जमाते और शासन करते है । हर रोज तुम लोगोंको यह कहते सुनते हों, ''ओह! यह विचार, वह सारे समय, बार-बार

 

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आता रहता है । मैं इसमे पिण्ड नहीं छुडा सकता । '' चिन्तासे लेकर दुर्भाव और भयतक, हर तरहके विचार इनपर सब तरफसे पिल पड़ते है । वे विचार जो डरका रूप धर लेते है बहुत कष्टदायक होते है । तुम उन्हें स्तर फेंक देनेकी कोशिश करते हों, पर वे एलास्टिक कितेक तरह लौटकर तुमपर ही गिरने है । कौन है जिसे अधिकार प्राप्त हो? इसके लिये जरूरत है बरसोंके श्रमकी, एक लम्बे अम्यासकी । और तब वहांतक पहुंच पाना जो अपने-आपमें पूर्ण नियंत्रण तो नहीं, फिर भी एक चरण तो है ही : ऐसा करनेकी क्षमता (मा बुहारनेकी मुद्रामें माथेपर हाथ फेरती हैं), मनकी सारी उथल-पुथलको बुहार फेंकनेका, सारे स्पन्दनोंको आनेसे रोक देनेकी क्षमता । और तब मनकी सतह शून्य-सपाट हों जाती है । सब कुछ रुक जाता है, थमा जाता है, जैसे खुली- पुस्तकका सफेद पन्ना --- पर लगभग भौतिक दृष्टिसे, समझे... बिलकुल कोरा!

 

         खुद जरा करके देरवो । वह बड़ा मजेदार है ।

 

        और तब व्यक्ति मस्तिष्कमें नाचनेवाले बिन्दुतक पहुंच जाता है । मैंने देखा है, मैंने श्रीअरविन्दको किसीके मस्तिष्कमें ऐसा करते देखा है, एक व्यक्ति ठीक यह शिकायत किया करता था कि विचार उसे कष्ट दे रहे है । मानों उनका हाथ आया, नाचते काले बिन्दुको पकड़ा और ऐसे (दूर फेंकनेका इगित) किया जैसे कोई एक कीडेको उठा फेंकता है, बहुत दूर । और बस, सब' कुछ हो गया । सब कुछ था शान्त, नीरव, ज्योतिर्मय... । यह देखा जा सकता था, जानते हो, विना कुछ कहें उन्होंनें उठा फेंका -- ओर सब खतम ।

 

         चीजों एक-दूसरेमें गुंथी रहती है. मैंने ऐसा भी देखा है जब कोई तीव्र वेदनासे कराहता हुआ उनके पास आया : ''ओह! बड़ा दर्द हों पल है, आह! कितना दर्द है! '' उन्होंने कुछ भी नहीं कहा, शान्त बने रहे, एकटक उसे देखा फजौर मैंने देहरा कि उनका सूक्ष्म हाथ .आगे बढ़ा, अव्यवस्था और अस्तव्यस्ततामें चक्कर काटते उस छोटे-से बिनुको पकड़ा, ओर उसे निकाल फेंका (वही 'मुद्रा), और लो, सब छू-मन्त्र हो गया ।

 

        ''वाह, देखिये! मेरा सारा दर्द उड़ गया! ''

 

        बस!

 

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